ऐसा लगता है कि लद्दाख की ठंड ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच पुरानी गर्मजोशी पर बर्फ डाल दी है. समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक के दौरान फोटो खिंचवाने के लिए वे दोनों इसके सदस्य देशों के दूसरे राज्याध्यक्षों के साथ एक-दूसरे के बगल में खड़े तो हुए मगर एक-दूसरे की जिस तरह अनदेखी करते रहे उससे तो यही संकेत मिलता है.
वैसे, खास तौर से विभिन्न क्षेत्रों में सहकारी भावना को मजबूत करने के लिए स्थापित मंच पर एक-दूसरे की जानबूझकर अनदेखी का प्रदर्शन, जाहिर है, समरकंद घोषणा में प्रतिबिंबित नहीं हुआ. इस घोषणा में अंतरराष्ट्रीय मामलों के बारे में साझा धारणा प्रदर्शित होती है और उन विविध क्षेत्रों की पहचान की गई है जिनमें आपसी सहयोग करके सुरक्षा तथा विकास को मजबूत किया जा सकता है. दिसंबर तक, भारत एससीओ की अध्यक्षता संभाल लेगा और 2023 में इसके सदस्य देशों के राज्याध्यक्षों की अगली बैठक की मेजबानी करेगा. शी ने भारत की अध्यक्षता में पूर्ण सहयोग का वादा किया है.
समरकंद घोषणा ने अंतरराष्ट्रीय स्थिति में बढ़ते खतरों को रेखांकित करते हुए अधिक प्रातिनिधिक, लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण और ऐसी बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र समन्वय की केंद्रीय भूमिका निभाएगा. यह खेमेबंदी को, विकास तथा सुरक्षा संबंधी चुनौतियों के मद्देनजर सैद्धांतिक तथा टकराव वाले नजरिए को खारिज करता है. लेकिन, चीन और रूस के हाल के कदम कथनी और करनी के अंतर को उजागर करते हैं.
रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण और खेमेबंदी की राजनीति में उसके उपक्रम, अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मामलों में चीन का टकराववादी तरीका यही दर्शाता है कि प्राथमिकताओं और एससीओ में की गई घोषणाओं में फर्क है. एससीओ की सुरक्षा परिषद के सचिवों की ताशकंद में जो बैठक 19 अगस्त 2022 को हुई उसमें सुरक्षा परिशा के रूसी सचिव निकोलाइ पात्रुशेव ने अपने देश की इस ख़्वाहिश का खुलासा किया कि वह एससीओ को अमेरिका और उसके मित्रों के खिलाफ प्रतिरोध का केंद्र बनाना चाहता है. इस धारणा का दूसरों ने, खासकर मध्य एशियाई देशों ने विरोध किया.
चीन के मजबूत होने और अमेरिकी प्रभाव के कमजोर पड़ने के साथ सभी मध्य एशियाई देश इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल, जिसके चलते इसका राजनीतिक समीकरण बदल रहा है, के कारण दबाव और तनाव महसूस कर रहे हैं. चीन ने अपनी ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआइ) को अपना भू-राजनीतिक दबदबा बढ़ाने का मुख्य साधन बना लिया था. इस वजह से रूस संसाधन-संपन्न मध्य एशिया पर अपनी पारंपरिक पकड़ कमजोर पड़ती महसूस कर रहा है और वह आर्थिक लाभ बांटने में चीन का मुक़ाबला करने में खुद को अक्षम पा रहा है. लेकिन चीन पर निर्भरता बढ़ने की आशंका सिर उठा रही है, हालांकि अभी वह प्रत्यक्ष रूप से प्रकट नहीं हुई है. यूक्रेन पर रूस के हमले के साथ बीआरआइ की कामयाबी का आर्थिक तर्क कमजोर पड़ सकता है. इसकी वजह हो सकती है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ ने यूक्रेन पर हमले के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रिया की और रूस-चीन साठगांठ, जिसे ‘असीम संभावनाओं वाली’ दोस्ती कहा जा रहा है, के कारण भू-राजनीतिक टकराव बढ़ने लगा है.
भारत के लिए अवसर
समरकंद में, शी ने यूक्रेन के मामले में रूस के रुख का खुल कर कोई जिक्र नहीं किया. हाल में रूस को सैन्य स्तर पर जो झटके मिले उससे चीन की चिंता बढ़ेगी कि इसका अमेरिका-चीन के व्यापक ‘पावर प्ले’ पर असर पड़ेगा. वैसे, उम्मीद यही है कि चीन सीधे-सीधे आर्थिक प्रतिबंधों का उल्लंघन न करते हुए रूस को सैन्य सहायता देने से परहेज करते हुए आर्थिक समर्थन देता रहेगा. रूस के लिए संभावना यही है कि चीन पर उसकी निर्भरता बढ़ेगी और वह जूनियर पार्टनर की हैसियत में पहुंच जाएगा. चीन से ज्यादा सावधान रहने की भावना भी अनिवार्य रूप से उभर सकती है. यह रूस को भारत से यथासंभव करीबी संबंध बनाए रखने की जरूरत महसूस हो सकती है, जो भारत के लिए यूरेशियाई क्षेत्र में भारत के लिए अवसरों का दरवाजा खोल सकता है.
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समरकंद में द्विपक्षीय बातचीत के दौरान मोदी ने पुतिन से जो यह कहा कि ‘यह युद्ध करने का समय नहीं है’, उसने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया. मोदी ने स्पष्ट किया कि यह बात उन दोनों के बीच पहले हुई बातचीत में भी कही जा चुकी है. इस भावना ने भारत के इस रुख को स्पष्ट किया कि मतभेदों को बातचीत और विचार-विमर्श से ही सुलझाया जाना चाहिए, हिंसा से हर हाल में बचना चाहिए. इससे स्पष्ट हुआ कि भारत ने अब तक चूंकि किसी का पक्ष लेने से परहेज किया है इसलिए वह आपस में लड़ रहे पक्षों के बीच मध्यस्थता करने का दावा कर सकता है.
आपसी रिश्ते की मजबूती का महत्व
भू-राजनीतिक संदर्भ में देखें तो भारत संबंधों के जटिल जाल बुनने में सफल रहा है, जो एशिया के महाद्वीपीय तथा समुद्रतटीय क्षेत्रों के लिहाज से विविधतापूर्ण हैं. महाद्वीपीय रिश्ते मुख्यतः उन देशों के साथ बने हैं जो चीनी पहल के तहत संगठित हो रहे हैं. दूसरी ओर, समुद्रतटीय देशों से रिश्ते अमेरिकी पहल के तहत बने हैं. इस तरह के रिश्ते भारत के लिए सुरक्षा, आर्थिक वृद्धि और विकास संबंधी दीर्घकालिक हितों के मद्देनजर काम के हैं. यह भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की संभावनाओं को भी मजबूत करता है. यह उसे विश्व व्यवस्था, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह ‘आदेशों से तय होती है’, से भी निबटने का लचीलापन भी देता है.
गठबंधन बनाने की प्रवृत्ति जिस तरह बढ़ रही है उसमें भारत परस्पर विरोधी संबंधों का जो जाल भारत बुनना चाहता है उसके मद्देनजर यह समझने की जरूरत बनती है कि अमेरिका, रूस, चीन तथा दूसरी ताकतों के साथ भारत के संबंध द्विपक्षीय रिश्तों के आधार पर मजबूत किए जाएं. भविष्य में, बहुपक्षीय और विविधतापूर्ण फोरम कमजोर पड़ने वाले हैं क्योंकि मुद्दों के आधार पर हितों के मेल को चुनौती मिल रही है. ‘एससीओ’, और आतंकवाद का सामूहिक सामना करने के उसके प्रयास के मामले को ही लीजिए, जिसमें भारत खुद को चीन और पाकिस्तान के बीच पाता है.
अब यहां आतंकवाद से लड़ने के मुद्दे पर हितों का मेल बनने की उम्मीद अवास्तविक है. इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि 26/11 के मुंबई हमलों में शामिल साजिद मीर जैसे आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई का प्रस्ताव जब भी संयुक्त राष्ट्र में पेश होता है तब चीन उसे रोक देता है.
इसी तरह, मोदी ने ‘एससीओ’ में व्यापार के लिए आवाजाही की सुविधा दिए जाने के सुझाव पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया से साफ है कि उस पर अमल नहीं होगा. गौरतलब है कि पाकिस्तान की इजाजत में देरी के कारण अफगानिस्तान को भेजी गई खाद्य सामग्री की अंतिम खेप अटकी पड़ी है.
चीन-भारत व्यापार अब तक भू-राजनीतिक बवंडरों को झेलते हुए भी जारी रहा है लेकिन चीन भारत की कमजोर स्थिति का उसी तरह फायदा उठा सकता है, जिस तरह वह उत्तरी सीमा पर उसकी सैन्य कमजोरी का उठा रहा है. आर्थिक मामलों में कमजोरी के मद्देनजर भारत ‘रीज़नल कन्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) जैसे बहुपक्षीय आर्थिक संगठनों के सदस्यता लेने की सोच सकता है. इसलिए भारत की आर्थिक रणनीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है.
भारत को अपनी भू-राजनीतिक छवि का फायदा उठाने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि वह किसी खेमे से नहीं जुड़ा है और किसी से भी व्यापार संबंध बना सकता है. भारत इस बात पर ज़ोर दे सकता है कि भू-अर्थनीति के तर्कों से भू-राजनीति की दादागीरी को कमजोर किया जा सकता है. इसी के साथ जरूरी है कि व्यापार संबंधों में विस्तार आत्मनिर्भरता की कोशिश को कमजोर न करे.
‘एससीओ’ में मोदी-शी के बीच व्यक्तिगत शीतयुद्ध निकट भविष्य में शांत हो इसके आसार नहीं हैं. यह स्थिति इसलिए बनी रहेगी क्योंकि वैश्विक भू-राजनीतिक समीकरण में टकराव से पैदा हुई ताक़तें भारत-चीन संबंध में अविश्वास पैदा करती हैं और एक-दूसरे की मंशाओं को लेकर सावधान रहने का भाव मजबूत होता है.
भारत ऐसे समय में ‘एससीओ’ की अध्यक्षता संभालेगा जब इसके सदस्यों के संबंध तनावपूर्ण होंगे. इसलिए ‘एससीओ’ से ज्यादा अपेक्षाएं न रखना ही भारत के लिए समझदारी की बात होगी. फिर भी मेज पर अध्यक्षता ऐसे अवसर भी बना सकती है जो अभी नज़र नहीं आ रहे हैं. इसलिए उम्मीद बनाए रखिए.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)