कोंड़ागांव, 4 सितंबर । जिले के फरसगांव ब्लॉक सेलगभग 8 किमी दूर पश्चिम से बड़ेडोंगर मार्ग पर ग्राम आलोर से लगभग 2 किमीदूर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है जिसके गुफा में लिंगई माता विराजमान हैं। इस गुफा का प्रवेश द्वार छोटा है, जिसमें बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जा सकता है, गुफा के अंदर 25 से 30 आदमी बैठ सकते हैं। गुफा केअंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शिवलिंग है, जिसकी ऊंचाई लगभग दो फुट होगी। परंपरा और लोक मान्यता के कारण इस प्राकृतिक मंदिर में प्रतिदिन पूजा अर्चना नहीं होती है। मंदिर का पट वर्ष में एक बार खुलता है, हर साल भाद्रपद मास की नवमी तिथि के बाद आने वाले पहले बुधवार को गुफा का द्वार साल में केवल एक बार खुलता है। बड़ेडोंगर के पास स्थित आलोर की माता लिंगेश्वरी का एक दिन का मेला 18 सितंबर को आयोजित होगा, इसी दिन यह पट 18 सितंबर को एक दिन के लिए खुलेगा। अलसुबह 3 बजे गुफा खुलेगी, जहां निःसंतान दंपति संतान प्राप्ति की कामना लेकर पहुंचेंगे।
लिंगई माता मंदिर के इस धाम से जुड़ी दो विशेष मान्यताएं प्रचलित हैं। पहली मान्यता संतान प्राप्ति के बारे में है, यहां आने वाले अधिकांश श्रद्धालु संतान प्राप्ति की मन्नत मांगने आते है। यहां मनौती मांगने का तरीका अनूठा है, संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वाले दंपत्ति को खीरा चढ़ाना होता है। प्रसाद के रूप में चढ़े खीरे को पुजारी, पूजा के बाद दंपति को वापस लौटा देता है। इसके बाद दंपत्ति को शिवलिंग-लिंगई माता के सामने ही इस ककड़ी को अपने नाखून से चीरा लगाकर दो टुकड़ों में तोड़कर इस प्रसाद को दोनों को ग्रहण करना होता है। चढ़ाए हुए खीरे को नाखून से फाड़कर शिवलिंग के समक्ष ही (कड़वा भाग सहित) खाकर गुफा से बाहर निकलना होता है।
यहां प्रचलित दूसरी मान्यता भविष्य के अनुमान को लेकर है, एक दिन की पूजा के बाद मंदिर बंद कर दिया जाता है, बाहरी सतह पर रेत बिछा दी जाती है। अगले साल इस रेत पर जो चिन्ह मिलते हैं, उससे पुजारी भविष्य का अनुमान लगाते हैं। उदाहरण स्वरूप यदि कमल का निशान होतो धन संपदा में बढ़ोत्तरी होती है, हाथी के पांव के निशान हो तो उन्नति, घोड़ों के खुर के निशान हों तो युद्ध, बाघ के पैर के निशान हो तो आतंक तथा मुर्गियों के पैर के निशान होने पर अकाल होने का संकेत माना जाता है।
आलोर निवासी सदाराम, भागवत, व फूलसिंह ठाकुर बताते हैं कि पहले लिंगई माता की गुफा में देखे गए चिन्हों की सूचना बस्तर महाराजा को दी जाती थी। वे दशहरा के मौके पर आयोजित मुरिया दरबार में चिन्हों के शुभ-अशुभ की जानकारी मांझियो को देकर प्रजा को सचेत रहने की अपील करते थे, अब यह परंपरा विलुप्त हो गई है।