अंतर्मन के चक्षु कपाट
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इतना भी मैं महत्वपूर्ण नहीं हूं।
अल्प ज्ञानी हूं प्रकांड ज्ञानी नहीं हूं? ।।
हे मेरे प्यारे सखा!!
मद रहित मेरे अल्लहण मन को,
बस सरल सहज ही रहने दो।।
सत्य खोजने मैं निकला हूं,
मन को चंचल मत बनने दो।
हृदय आसक्ति से भरा हुआ है,
सत्याटन में हमें भटकने दो।।
नहीं रोकिए मुझे सखा यह विनती है।
कहकर प्रकांड विद्वानों में मेरी गिनती है।।
अभी अभी तो संकल्प किया है।
चलना ही बस शुरू किया है।।
जीवन सत्पथ पर हुआ अग्रसर।।
कदम कदम से अनभिज्ञ हैं नर।।
कदम चाल अपनी चलता है।
भाव हृदय में अगणित उठता है ।।
वेगवान मन पर लगाम तो कसने दो।
अंतर्मन के चक्षु कपाट तो बंद अभी हैं।
निर्विकार उन्मुक्त भाव हिय भरने दो।।
हृदयांतर खतरों से लड़ना बाकी है ।
शोधना चंचल मन को अपने बाकी है।।
लोभ मोह मद क्रोध,
की बलि देना बाकी है।
गंगाजल के जैसा शुचि, पावन तो मन होने दो।।
*@काव्यमाला कसक*
*सुरेन्द्र दुबे अनुज जौनपुरी*
kavyamalakasak.blogspot.com
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