जानता हूं एक ऐसे शख़्स को मैं भी ‘मुनीर’
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
उन में जा कर मगर रहा न करो
अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहां
शाम आ गई है लौट के घर जाएं हम तो क्या
ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं
तू ने मुझ को खो दिया मैं ने तुझे खोया नहीं
मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन बाद में होगी
गुज़र जाएंगे जब ये दिन ये उन की याद में होगी
कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था
वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में ‘मुनीर’
आज कल होता गया और दिन हवा होते गए
तुम मेरे लिए इतने परेशान से क्यूं हो
मैं डूब भी जाता तो कहीं और उभरता
‘मुनीर’ इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को
हमेशा एक सा होना नहीं है