दिल्ली हाई कोर्ट ने देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) की आवश्यकता का समर्थन किया है और केंद्र सरकार से इस मामले में जरूरी कदम उठाने को कहा है। कोर्ट ने कहा कि आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे ‘सजातीय’ हो रहा है, धर्म, समुदाय और जाति की पारंपरिक बाधाएं खत्म हो रही है, और इन बदलावों के मद्देनजर समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है।
यह आदेश जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने 7 जुलाई हिंदू मैरिज एक्ट 1955 से जुड़ी एक याचिका पर विचार करते हुए पारित किया। मामला मीणा समुदाय के दो पक्षों के बीच का था। जज ने कहा कि अदालतों को बार-बार पर्सनल लॉ कानूनों में उत्पन्न होने वाले संघर्षों का सामना करना पड़ता है। अलग-अलग समुदायों, जातियों और धर्मों के लोग जो जो वैवाहिक बंधन बनाते हैं, इन टकरावों से संघर्ष करते हैं।
जस्टिस सिंह ने आगे कहा, ”भारत के युवाओं को जो अलग समुदायों, जातियों या जनजातियों में शादी करते हैं, उन्हें अलग-अलग पर्सनल लॉ में होने वाले टकरावों से उत्तपन्न मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, खासकर शादी और तलाक के मामलों में।”
दिल्ली हाई कोर्ट की जज ने कहा कि भारत में समान नागरिक संहिता, संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत परिकल्पित है, सुप्रीम कोर्ट की ओर से ”समय-समय पर दोहराया गया” है। कोर्ट ने कहा, ”ऐसा सिविल कोड ‘सभी के लिए एक जैसा’ होगा और शादी, तलाक और उत्तराधिकार के मामले में समान सिद्धांतों को लागू करेगा।” कोर्ट ने कहा कि इससे समाज में झगड़े और विरोधाभासों में कमी आएगी, जोकि अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से उत्पन्न होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल मार्च में केंद्र सरकार से भारत में धर्म-तटस्थ विरासत और उत्तराधिकार कानून को लेकर जवाब मांगा था। सर्वोच्च अदालत में वकील और भारतीय जनता पार्टी के नेता अश्विनी उपाध्याय सर्वोच्च अदालत में इस तरह की पांच याचिकाओं को स्वीकार कराने में सफल रहे हैं, इसे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है।
यूनिफॉर्म सिविल कोर्ड का आमतौर पर मतलब कानूनों के ऐसे समूह से है जो शादी, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, विरासत के मामले में देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान हो। अभी अलग-अलग धर्मों के लिए अलग कानून हैं। इन कानूनों में हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदू उत्तराधिकार कानून, इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट, इंडियन डिवोर्स एक्ट, पारसी मैरिज एक्ट और डिवोर्स एक्ट हैं। हालांकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध नहीं किया गया है और ये उनके धार्मिक ग्रंथों पर आधारित हैं।