उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद सबसे बड़ा सवालिया निशान यदि किसी पर लगा है तो वह है बहुजन समाज पार्टी का भविष्य। चार बार यूपी की मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुकीं मायावती के खाते में महज एक विधानसभा सीट आई जोकि कांग्रेस और राजा भैया की जनसत्ता लोकतांत्रिक पार्टी से भी कम है। 2017 विधानसभा चुनाव के मुकाबले वोट शेयर में भी करीब 10 फीसदी की गिरावट आ गई है। ऐसे में तीन सबसे बड़े सवाल जो उभर रहे हैं वे हैं कि पार्टी की ऐसी हालत क्यों हुई? क्या अब पार्टी के अस्तित्व पर संकट आ चुका है और क्या अब भी पार्टी कमबैक कर सकती है और यदि हां तो कैसे? हमने इन सवालों के समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान के जानेमाने शोधकर्ता प्रो. एके वर्मा से बात की। आइए उनसे जानते हैं इन 3 सवालों के जवाब।
बसपा की आखिर ऐसी हालत क्यों हुई?
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइयटी एंड पॉलिटिक्स के डायरेक्टर एके वर्मा कहते हैं, ”इसके पीछे कई चीजें है, पहली यह कि मायावती अपना जनाधार खोने के लिए खुद जिम्मेदार हैं। वह नेशनल पॉलिटिक्स की ओर शिफ्ट कर गईं और उत्तर प्रदेश की राजनीति को दरकिनार कर दिया। 2007 में मायावती ने जो सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग बेहद नायाब था और बहुत सफल रहा। उन्होंने जातिवादी और दलित अस्मिता की राजनीति का त्याग करके समावेशी राजनीति का प्रयोग किया था। ना सिर्फ ब्राह्मणों को बल्कि समाज के सभी वर्गों को साथ लिया था और 2007 के नतीजों में यह दिखा भी कि मायावती के लिए सभी समाज का वोट बढ़ा था। लेकिन समस्या यह हुई कि बहुत कम वोट शेयर (30 फीसदी) के साथ सरकार बनी थी, उसमें मुसलमानों और ब्राह्मणों का शेयर बहुत ज्यादा था। इससे दलितों ने महसूस किया कि उन्हें अस्मिता तो मिली लेकिन सशक्तिकरण नहीं मिला। वह दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम में सामंजस्य नहीं कर पाईं। इस प्रयोग को आगे नहीं बढ़ा पाईं।”
अस्मिता के बाद अब अभिलाषा हावी
यूपी की राजनीति पर लंबे समय तक शोध करने वाले एके वर्मा कहते हैं, ”दूसरी वजह यह है, मायावती चूंकि अपनी समावेशी राजनीति को आगे नहीं बढ़ा पाईं, दलितों में यह भाव था कि अस्मिता तो हमारी अक्षुण्ण हो गई है, लेकिन हमारी जो अभिलाषा-आकांक्षा की राजनीति है वह कैसे पूरी होगी। अस्मिता तो ठीक है, लेकिन आप इससे आगे बढ़ना चाहते हैं। कुछ आपके भीतर अभिलाषा भी है, जिसे आप पूरी करना चाहते हैं। उन्हें मोदी सरकार में संभावनाएं दिखीं और भाजपा की तरफ वे मुड़ गए। भाजपा का जो नारा था सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास, शुरुआत में यह एक जुमला लगा था, लेकिन उन्होंने इसे सर्विस डिलिवरी के माध्यम से हकीकत में बदला। दलितों तक योजनाओं का लाभ पहुंचाया। इसमें बहुत बड़ा योगदान डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) का है। इसके माध्यम से गरीबों और दलितों के लिए योजनओं में बिचौलियों का रोल खत्म हो गया। इससे उन्हें गुणवत्ता का फर्क दिखा और लगा कि यह सरकार हमारी के लिए कुछ कर रही है। इसलिए 2014 के बाद आप देखेंगे कि आरक्षित सीटों पर बीजेपी का कब्जा हो गया, जबकि बीजेपी को पहले इन सीटों पर बहुत मुश्किल होती थी। आरक्षित सीटों पर जीतने से एक बहुत बड़ा पूल बीजेपी के पास ऐसे सांसदों विधायकों का आ गया जिससे वह अपनी पकड़ और जुड़ाव मजबूत बना सकी।”
कमबैक की कितनी संभावना और कैसे होगा?
इस सवाल .के जवाब में एके वर्मा कहते हैं, कमबैक के लिए उनके पास कांशीराम का मॉडल तो है लेकिन उसे लागू करने की आपके अंदर इच्छा होनी चाहिए। वह मॉडल लागू करना मायवती और अखिलेश के लिए संभव नहीं। ये दोनों अब साथ नहीं आ सकते, आएंगे भी तो लाभ नहीं होगा। क्योंकि सामाजिक स्तर पर जो बिखराव हो गया है दलितों और ओबीसी में वह कभी इन जातियों को उन्हें एक वर्ग नहीं बनने देगा। एक कोई ऐसी लीडरशिप सामने आए जो कांशीराम और लोहिया के सिद्धांतों पर दलितों और ओबीसी को एक मंच पर लाए। मायावती की तरह किसी नेता का उभार हो भी और केवल दलितों को आगे करके राजनीति करे तो सफलता पर प्रश्नचिह्न है, क्योंकि जब तक दलितों के साथ अस्मिता का संकट था, वे अस्मितावादी जातिवादी पार्टी केसाथ खड़े थे आज उनकी अभिलाषा को पंख लग गए हैं तो अस्मिता गौण हो गई है।