आज से ठीक एक महीने पहले उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। उनके 54 विधायकों में से 40 ने ठाणे के मजबूत नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया था। इसकी पटकथा 20 जून को विधान परिषद चुनाव के दिन ही लिखी जा चुकी थी। एक सप्ताह के भीतर यह स्पष्ट हो गया कि ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र विकास अघाड़ी सरकार का अस्तित्व खतरे में है।
शिवसेना प्रमुख अपने विधायकों को विद्रोही खेमे में शामिल होने से नहीं रोक सके। इसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि उनकी सरकार गिर जाएगी क्योंकि विधानसभा के पटल पर बहुमत के लिए जरूरी 145 के आंकड़े से पीछे आ गई। इसके बाद उद्धव ठाकरे ने 29 जून को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने दो साल और सात महीने तक महाराष्ट्र के शासन को संभाला।
बीजेपी के समर्थन से एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने। देवेंद्र फडणवीस ने शिंदे के साथ उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। बीजेपी आलाकमान के इस निर्णय ने महाराष्ट्र सहित पूरे देश को चौंका दिया। इसके बाद एक महीने में महाराष्ट्र की सियासत में ठाकरे बनाम शिंदे की कई कहानी देखने, सुनने और पढ़ने को मिली है।
शिवसेना पर कब्जा करने की शिंदे की कोशिशशिवसेना में सभी को लगा कि एमवीए सरकार को गिराने के बाद शिंदे का विद्रोह रुक जाएगा। लेकिन उन्हें उस समय झटका लगा जब यह स्पष्ट हो गया कि मुख्यमंत्री बनने के बाद शिंदे का लक्ष्य शिवसेना पर नियंत्रण रखना था।
शिवसेना पर फुल कंट्रोल के 2 कारण
एकनाथ शिंदे के शिवसेना पर फुल कंट्रोल का पहला कारण दलबदल विरोधी कानून है। इसके प्रावधानों के जटिलताओं से बचने के लिए वह पार्टी पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरा कारण ठाकरे हैं, जिनके लिए शिवसेना को पुनर्जीवित करने की कोशिशों के मुश्किल बनाना और उनके सियासी वजूद को संकट में डालने की मंशा है।
दल-बदल विरोधी कानूनों के प्रावधानों के तहत किसी भी टूटे हुए गुट को मूल पार्टी से अलग होने के बाद विधानसभा में किसी भी मौजूदा दल के साथ विलय करना पड़ता है। इसका मतलब है कि शिंदे गुट को कानून के तहत अयोग्यता को रोकने के लिए भाजपा या किसी अन्य पार्टी के साथ विलय करना होगा। गुट अपना अलग अस्तित्व बनाए रखने में सक्षम नहीं होगा। इसका मतलब यह भी होगा कि शिंदे निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं होंगे क्योंकि उन्हें उस पार्टी के आदेश का पालन करना होगा जिसमें उन्होंने विलय किया था। उनके साथ आए ज्यादातर बागी विधायकों को भी यह मंजूर नहीं था।